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गांधी से मेरा निजी विवाद नहीं... ~ बाबा साहब अंबेडकर



जो बोलने की कला से दुश्मन का मन जीत ले, वह महापुरुष है।

संविधान के जनक और देश के पहले कानून व न्याय मंत्री थे डॉ. भीमराव आंबेडकर। समाज में दलित वर्ग को समानता दिलाने के लिए उनके संघर्ष की आज भी बहुत सराहना की जाती है। जन्मदिन (14.04.1891-06.12.1956) पर पेश हैं उनके भाषणों के कुछ अंश और विचार:


गांधी से मेरा निजी विवाद नहीं

मैं एक गरीब परिवार में जन्मा हूं। बड़ी मेहनत और लगन के साथ मैंने पढ़ाई की। आगे बड़ौदा सरकार की मदद से विलायत जाकर उपाधियां हासिल कीं। फिर नौकरी की। दो साल नौकरी छोड़कर फिर विलायत गया और बैरिस्टर तथा डी एससी की उपाधियां हासिल कीं। तब से समाज कार्य और व्यवसाय दोनों मैं बड़ी ईमानदारी से करता आया हूं। बैरिस्टर की पढ़ाई जब मैंने शुरू की थी, तब हाईकोर्ट के सभी वकील ब्राह्मण और सभी सॉलिसिटर गुजराती थे। उसी वक्त गांधी के पास जाकर मैं अपने लिए कुछ मांग सकता था। सम्मान, केसेज और रुपया-पैसा भी पा सकता था। दूसरों की तरह ही मेरा निजी विवाद होता तो वह मिटाकर मैं गांधी की शरण में जा सकता था। लेकिन गांधी और मेरे बीच का विवाद अभी तक मिटा नहीं है। इसकी वजह यह है कि मैं गांधी से अपने लिए कुछ भी मांगना नहीं चाहता। मैं अपनी बुद्धि, अपने पुरुषार्थ और अपने बल के सहारे जीवन बिता रहा हूं। गांधी से मैं जो मांग रहा हूं, वह आप लोगों की तरफ से और जो न्याय है वही मांग रहा हूं। गांधी के साथ मेरा यह झगड़ा अपने पूरे समाज की ओर से है और समाज के उज्ज्वल भविष्य के लिए है।



पढ़ाई और छात्रों की संसद

मान लें कि किसी ने भारत की राजनीति में हिस्सा लेने वालों में कुछ अच्छे वक्ताओं की लिस्ट बनाने के बारे में सोचा, तब भी वह मेरा नाम उस लिस्ट में किसी बलबूत शामिल नहीं कर पाएगा और मुझे यह सम्मान पाने की लालसा नहीं है। एक समय ऐसा था जब मुझे अपने संकोच से छुटकारा पाने की फिक्र हुआ करती थी। मैं इस बात को लेकर इतना निराश था कि छात्र मेरा मजाक उड़ाएंगे, यही सोचकर सिडनहम कॉलेज में मिली नौकरी छोड़ देने तक की सोची थी। लेकिन मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि जिन्हें मेरी तरह डर सताता हो, वे अपना डर त्यागकर भाषा पर प्रभुत्व पाने की कोशिश में लग जाएं। मेरे मतानुसार इसमें कठिन कुछ भी नहीं।कुछ साल छोड़ दें तो मैंने 1926 से लेकर 1946 तक लगभग सभी बरसों में पार्लियामेंट के कामकाज में हिस्सा लिया है। उस दौरान मैंने हर तरह के अध्यक्ष देखे हैं। उनमें से कुछ अच्छे थे, कुछ नहीं, कुछ निष्पक्ष थे, कुछ योग्य थे, कुछ अयोग्य थे, कुछ संतुलित थे और कुछ दूसरे गुण और अवगुणों से भरे थे। लेकिन हमने हमेशा उनके फैसले का सम्मान ही किया। असल में दुख इस बात का है कि पार्लियामेंट का काम कैसे चलता है इसका प्रत्यक्ष ज्ञान आपको मिल नहीं पाता। अगर आपको पैरिस, लंदन या अमेरिका जाने और उन जगहों के अधिवेशन देखने का मौका मिले तो इन तीन सभागारों के मजेदार मतभेद देख पाएंगे। आप पाएंगे कि पैरिस का सभागृह आश्चर्य का नमूना है। एक बार पेरिस के निचले सदन में मुझे लगातार दो या तीन दिन जाना पड़ा था। वहां जो कुछ चल रहा था वह देखकर मुझे लगा कि बाजार में और उस जगह में कोई फर्क नहीं है। लोग बार-बार यहां-वहां आवाजाही कर रहे थे और अनुशासन नाम की कोई चीज वहां नहीं थी। अध्यक्ष की बात कोई नहीं सुन रहा था, सभी अनुशासन की अनदेखी कर रहे थे, बिचारे अध्यक्ष महोदय को शांति बनाए रखने के लिए लकड़ी का बना हथौड़ा बार-बार टेबल पर मारना पड़ता था। लेकिन लंदन में इसके बिलकुल उलट तस्वीर देखी। वहां एक नियम है कि जब अध्यक्ष खड़े होते हैं तब वहां कोई अपनी जगह खड़ा नहीं रहेगा। हर किसी को बैठे रहकर उनको सुनना पड़ता है। अध्यक्ष की इजाजत के बिना कोई भाषण की शुरुआत नहीं कर सकता। वॉल्टर बैगहॉट नाम के एक राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने पार्लियामेंट्री प्रजातंत्र की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह बहस करने वाली राज व्यवस्था है। मुझे लगता है कि यही बहुत बड़ा सच है क्योंकि प्रजातंत्र में सब कुछ खुला होता है। परदे के पीछे से कुछ काम नहीं किया जाता। किसी एक व्यक्ति की इच्छा है इसलिए कुछ नहीं किया जाता। हर विषय, सदन में प्रस्ताव, कानून और सूचना के रूप में रखा जाता है और उस पर बहस की जाती है।


भाषण सीखने में लगती है मेहनत

भाषण एक कला है। बड़ी मेहनत करनी पड़ती है इस कला को सीखने में। कुछ लोगों में यह कला पैदाइशी हो सकती है। प्रजातंत्र के युग में बेहतरीन भाषण कला की बहुत जरूरत है। जो बोलने की कला के सहारे दुश्मन का मन जीत लेता है, वह महापुरुष होता है। इस कला को आत्मसात करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। मैं खुद भी पहले डरपोक था। एलफिन्स्टन कॉलेज में जब मैं प्रोफेसर था, तब छात्रों के सामने भाषण देते समय शुरू-शुरू में मेरा मन भी डांवाडोल हुआ करता था। उच्चवर्णीय के आगे महार का बच्चा बोला तो उसका मजाक उड़ाया जाएगा, मुझे ऐसा डर लगता था। बहस आदि में मैंने ज्यादातर हिस्सा नहीं लिया। उस वक्त मुझे लगता नहीं था कि मैं अच्छा बोल पाऊंगा। अंग्रेजी भाषा मैं अच्छी तरह लिख सकता हूं। कम से कम उस वक्त ऐसा लगता था। लेकिन कड़ी मेहनत और लगन को अपनाकर मैंने यह कला विकसित की है। मैंने 13-13 बार अपने भाषण लिखे हैं। इससे बेहतर कोई नहीं बता पाएगा, यह यकीन होने के बाद ही मैं अपना भाषण दिया करता था।


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ध्यान दें

  1. आपको खूब पढ़ना चाहिए। हर रोज एकाध किताब पढ़ने की आदत आपको डालनी चाहिए। इससे ज्ञान भी बढ़ेगा और आत्मविश्वास पैदा होगा।

  2. शिक्षा और राजनीति के बिना अपना उद्धार संभव नहीं। राजनीति की लगाम विद्या के बगैर अपने हाथ नहीं आनेवाली।

  3. राजनीति की ही तरह शिक्षा संस्थान का भी महत्व है। किसी समाज की उन्नति उस समाज के बुद्धिमान, कुछ कर गुजरने का माद्दा रखने वाले और उत्साही युवकों के हाथ में होती है। इसी दिशा में सोचते हुए पिछले कुछ बरसों से मैं राजनीति की तरफ थोड़ा कम ध्यान देकर शैक्षिक संस्थाओं की ओर ज्यादा ध्यान दे रहा हूं।


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